पांच वर्ष से अधिक समय तक पूरे देश के लिए रहस्यमय सवाल बने आरुषि-हेमराज हत्या मामले में आखिरकार सीबीआइ अदालत ने अपना फैसला सुना दिया और इस दोहरे हत्याकांड के लिए आरुषि के ही माता-पिता को दोषी ठहराया। डेंटिस्ट राजेश तलवार और उनकी पत्नी नूपुर को हत्या के साथ-साथ सुबूत मिटाने का भी दोषी पाया गया है। यह मामला कई कारणों से बेहद चर्चित और नाटकीय रहा। 15 मई, 2008 की रात नोएडा में तलवार परिवार के फ्लैट में ही आरुषि की हत्या के बाद पहले दिन से इस मामले में अदालत का फैसला आने तक न जाने कितने उतार-चढ़ाव आए। अब सीबीआइ अदालत कल यानी मंगलवार को तलवार दंपती को सजा सुनाएगी। हत्या के मामले में आजीवन कारावास से लेकर मौत की सजा तक दी जा सकती है, लेकिन ऐसा लगता नहीं कि अदालत इस मामले को दुर्लभ में दुर्लभतम की श्रेणी में रखेगी। निश्चित ही आरुषि-हेमराज की मर्डर मिस्ट्री को आगे भी ध्यान से देखा जाएगा। लोग इस मामले का सच जानना चाहते थे और एक समय ऐसा लगने लगा था कि इसकी सच्चाई कभी सामने नहीं आ सकेगी। यह स्वाभाविक ही है कि इस मामले की गुत्थी सुलझाने में काफी समय लगा, लेकिन इसके लिए केवल सीबीआइ को दोष नहीं दिया जा सकता। 1इस मामले का एक विचित्र पहलू यह है कि यह तलवार दंपती ही थे जिन्होंने उत्तर प्रदेश पुलिस की जांच-पड़ताल पर भरोसा न होने कारण इस हत्याकांड की सीबीआइ से जांच कराने के पक्ष में आवाज बुलंद की थी। ऐसा ही हुआ और यह मामला सीबीआइ के पास आ गया। सीबीआइ ने अपनी जांच-पड़ताल कई दिशा में की। यह बात सत्य है कि सीबीआइ भी अंतत: उसी नतीजे पर पहुंची जो उत्तर प्रदेश पुलिस की थी, लेकिन इस आधार पर यह नहीं कहा जा सकता कि यूपी पुलिस ने अपना काम एकदम सही तरह से किया था। उसने कई स्तर पर लापरवाही का परिचय दिया और यह भी एक कारण है कि सीबीआइ को अपनी जांच-पड़ताल पूरी करने में इतना लंबा समय लग गया। यूपी पुलिस के कामकाज की एक बानगी यह है कि उसने आरुषि की हत्या की जांच करते हुए घर की ठीक तरह से तलाशी भी नहीं ली और इसके चलते हेमराज की भी हत्या होने और उसकी लाश छत पर पड़ी होने का तथ्य काफी बाद में सामने आ सका। 1यह लगभग तय है कि सीबीआइ अदालत के फैसले से असंतुष्ट तलवार दंपती ऊंची अदालत में अपील करेंगे और संभव है कि उच्च न्यायालय अथवा उच्चतम न्यायालय में यह फैसला पलट जाए, जैसा कि अन्य अनेक मामलों में हो चुका है, लेकिन फिलहाल तो इस सवाल का जवाब सामने आ ही चुका है कि आरुषि और हेमराज की हत्या किसने की? आरुषि-हेमराज हत्या मामला एक नजीर की तरह है और इसमें जांच एजेंसियों के साथ- साथ समूचे न्यायिक तंत्र और नीति-नियंताओं के लिए भी सबक छिपे हैं। अपने देश में जांच एजेंसियों के कामकाज पर सवाल उठते ही रहे हैं। सीबीआइ तो खास तौर पर ऐसे सवालों का निशाना बनती रही है। इसी मामले में ही जब सीबीआइ अपने लॉ डिपार्टमेंट के सुझाव पर फाइनल रपट लगाने के फैसले पर पहुंची थी तब भी उसके कामकाज पर उंगली उठाई गई थी और अब जब अदालत ने उसकी जांच-पड़ताल को सही माना है तब भी एक वर्ग उसके कामकाज पर सवाल खड़े कर रहा है। सीबीआइ को ज्यादातर जटिल-हाई प्रोफाइल मामले ही तफ्तीश के लिए मिलते हैं, लेकिन हर कोई उससे फटाफट सच तक पहुंचने की अपेक्षा करता है। किसी को सीबीआइ के ढांचे पर भी निगाह डालनी चाहिए। उसके सामने काम की जैसी चुनौती है उसके अनुरूप संसाधन कहां हैं? 1जांच की दृष्टि से तो उत्तर प्रदेश पुलिस ने इस मामले को समाप्त ही कर दिया था। उसने तमाम महत्वपूर्ण सुबूतों को या तो एकत्र नहीं किया या उन्हें नष्ट हो जाने दिया। क्राइम सीन से फिंगर प्रिंट तक सही तरीके से नहीं लिए गए और आरुषि के कमरे की पूरी तरह तलाशी तक नहीं ली गई। यूपी पुलिस की जांच-पड़ताल के बाद तो यह केस एक तरह से मर गया था। सीबीआइ के पास जब यह मामला आया तो जांच और सच तक पहुंचने की चुनौती बहुत गंभीर हो चुकी थी। अदालत का फैसला आ जाने के बाद यह कहा जा सकता है कि सीबीआइ को जो काम सौंपा गया था उसे उसने सफलतापूर्वक पूरा कर दिया। जो लोग केस बंद करने के सीबीआइ के आग्रह पर सवाल उठा रहे थे उन्हें यह समझना चाहिए कि सीबीआइ ने यह फैसला अपने लॉ डिपार्टमेंट की सिफारिश पर लिया था। जब अदालत ने सीबीआइ की फाइनल रपट को ठुकरा दिया तो इस एजेंसी को मामले की नए सिरे से जांच करनी ही थी। सीबीआइ अदालत का फैसला पूर्वाग्रह से प्रेरित होने के आरोप को एक दोषी की स्वाभाविक शिकायत के रूप में ही लिया जाना चाहिए। अदालत जिस किसी को दोषी ठहरा देती है वह इसी तरह की बातें करता है। कभी वह कहता है कि उसे झूठा फंसाया गया है तो कभी उसे मामले में राजनीतिक साजिश नजर आती है। आज तलवार दंपती भी ऐसी ही शिकायत करते नजर आ रहे हैं, जबकि मामला साफ है कि अदालत ने सीबीआइ की जांच-पड़ताल को सही माना। 1देश में न्यायिक तंत्र की बदहाली किसी से छिपी नहीं है। हर कोई इसकी खामियों से परिचित हैं, यहां तक कि सरकार भी, लेकिन इन खामियों को दूर करने की दिशा में कुछ ठोस हो नहीं पा रहा है। दुनिया में न्यायिक तंत्र का एक पैमाना यह है कि हर दस लाख लोगों में 50 जज होने चाहिए, लेकिन अपने देश में हालत यह है कि जजों के केवल 18000 पद हैं और उनमें भी एक चौथाई के लगभग खाली पड़े हैं। उच्च न्यायालयों और उच्चतम न्यायालय के मामले में भी स्थिति कोई बहुत अच्छी नहीं है। न्यायाधीशों के कुल 895 पदों के सापेक्ष करीब 280 पद रिक्त पड़े हुए हैं। इस स्थिति में आप त्वरित न्याय की आशा कैसे कर सकते हैं। न्यायिक तंत्र की खामियों के मामले में तो स्थिति यह है कि मरीज भी सरकार है और डॉक्टर भी वही। स्थिति कितनी खराब है, इसका अंदाजा इससे लगाया जा सकता है कि कलकत्ता उच्च न्यायालय में एक मामला लगभग डेढ़ सौ सालों से लंबित है। यह एक बानगी है कि हमने न्याय के प्रति कैसी उदासीनता अपना ली है। यह सही है कि जांच और अदालती निर्णयों की अपनी एक प्रक्रिया होती है, लेकिन यह भी एक सच है इस तरह के चर्चित मामलों में देश की जनता की अपेक्षा यही होती है कि न्याय शीघ्र से शीघ्र मिले। हमारे नीति-नियंताओं को न्यायिक तंत्र की खामियों को दूर करने के लिए बिना किसी देरी के ठोस कदम उठाने होंगे। इस मामले में केवल एक-दूसरे के ऊपर जिम्मेदारी डालकर अपने कर्तव्य की इतिश्री करते रहना सही नहीं है। 1(लेखक सीबीआइ के पूर्व निदेशक हैं)11ी2स्रल्ल2ीAं¬1ंल्ल.ङ्घे1
सबसे बड़ी गुत्थी16यह स्वाभाविक ही है कि इस मामले की गुत्थी सुलझाने में काफी समय लगा, लेकिन इसके लिए केवल सीबीआइ को दोष नहीं दिया जा सकता1 16
See also: http://uptetpoint.wapka.me/index.xhtml
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